प्रातः स्मरणीय अनन्त श्रीविभूषित सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज प्रणीत ‘वेद-दर्शन-योग’ को प्रकाशकीय माध्यम से परिचय कराना, मानो पूषण (सूर्य) को प्रदीप द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयास करना है । प्रस्तुत पुस्तक स्वयं देदीप्यमान होने के कारण अपना प्रदर्शन आप करती है; किन्तु पुस्तक-प्रकाशन के प्रसंग में विद्वानों में भूमिका, प्राक्कथन, प्रकाशकीय, दो शब्द आदि लिखने की जो परिपाटी चली आ रही है, उसी के रक्षणार्थ मुझे यहाँ दो शब्दों का लिखना आवश्यक हो गया, यद्यपि मैं कोई विद्वान नहीं, एक तुच्छ सत्संगी मात्र हूँ ।
आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार 52 वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है, उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है। इतने लम्बे अरसे से वेद, उपनिषद् एवं सन्तवाणियों का अध्ययन तथा मनन एवं उनके अन्तर्निहित निर्दिष्ट साधनाओं का अभ्यास करते हुए परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव मात्र सदाचार-समन्वित हो दृष्टियोग और शब्दयोग (नादानुसंधान) अर्थात् विन्दुध्यान और नादध्यान के द्वारा ब्रह्म-ज्योति और ब्रह्मनाद की उपलब्धि कर परम प्रभु सर्वेश्वर को उपलब्ध कर सकता है। इसी विषय का स्पष्टीकरण उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है । साथ ही उन्होंने यह भी समझाने की भरपूर चेष्टा की है कि प्राचीन कालिक मुनि-ऋषियों से लेकर अर्वाचीन साधु-संतों तक की अध्यात्म-साधना पद्धति एक है । वेद-उपनिषदादि में वर्णित अध्यात्म- ज्ञान और कबीर, नानक, तुलसी प्रभृति आधुनिक सन्तों के व्यवहृत आत्मज्ञान में ऐक्य या पार्थक्य है ? - इस भ्रम के निवारणार्थ ‘वेद- दर्शन-योग’ का प्रणयन किया गया है । अथवा सीधे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक उपर्युक्त ऐक्य वा पार्थक्य के असमंजस को मिटाकर पूर्ण सामंजस्य की स्थापना करती है । प्रमाणार्थ - ऋग्वेद के निम्नलिखित युगल मंत्रें में ब्रह्मतेज (ब्रह्मज्योति) और ब्रह्मनाद का वर्णन मिलता है ।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। 10।। सू0 62, मंडल 3
अर्थात् – " जो परमेश्वर हमारी बुद्धियों को अच्छी प्रकार उत्तम मार्ग में प्रेरित करता है, उस सर्वोत्पादक प्रकाश-स्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वदाता परमेश्वर के उस अनुपम, सर्वश्रेष्ठ, पापों को भून डालने- वाले, समस्त कर्म-बन्धनों को भस्म करनेवाले तेज को धारण करें और उसी का ध्यान करें ।" तथा -
शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।। 3 ।। सू0 41, मंडल 9
अर्थात् - आकाश में बिजलियाँ चमकती हैं और उस समय उस बलवान, पापशोधक का शब्द वृष्टि के समान सुन पड़ता है । साधक के मूर्धा स्थल में विद्युत की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं, वह अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है । वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
उपनिषद् में भी परमात्मा से प्रार्थना है कि मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल-तमसो मा ज्योतिर्गमय । और मुक्तिकोपनिषद् में भगवान श्रीहनुमानजी को आदेश देते हैं -
बहुशास्त्रकथा कन्थारोमन्थेन वृथैव किम् ।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ।।63।।
अर्थात्कृबहुत-से शास्त्रें की कथाओं को मथने से क्या फल ? हे हनुमान! अत्यन्त यत्नवान होकर अपनी अन्तर्ज्योति की खोज करो ।
भगवान बुद्ध कहते हैं -
अन्धकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ । - धम्मपद ।
अर्थात् अन्धकार से घिरे तुम प्रकाश की खोज क्यों नहीं करते ? इसी अन्तःप्रकाश को सन्त कबीर साहब, ‘गुरु दियना’ और ‘ब्रह्म-अग्नि’ की संज्ञा देते हैं और कहते हैं -
गुरु दियना बारु रे, यह अन्धकूप संसार ।।
अपने घट दियना बारु रे ।
नाम का तेल सुरत की बाती, ब्रह्मअगिन उद्गारु रे ।।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं -
अन्तर जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा ।
आरति संग सतगुरु के कीजै । अंतर जोत होत लख लीजै ।।
(तुलसी साहब)
इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।
(राधाास्वामी साहब)
और महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं -
खोज करो अन्तर उजियारी, दृष्टिवान कोइ देखा है ।
------------------------------
निसि दिन सुरत अधर पर कर कर, अन्धकार फट जाता है ।।
इत्यादि ।
उपर्युक्त उपनिषद् एवं सन्तवाणियों में वर्णित प्रक्रियाओं के नाम ही दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा आदि हैं । और नादानुसन्धान- विषयक विशेष अभिज्ञता के लिए वेदों में जो आदेश है, उसका संक्षिप्त वर्णन इसी पुस्तक के ज्योति और अन्तर्नाद, आत्मा की सत्यस्वरूप प्रिय वाणी तथा नाद प्रकरण में पढ़कर जानिये । नादविन्दूपनिषद् में नादानुसन्धान वा नादध्यान का वर्णन इस प्रकार है -
ब्रह्मप्रणवसंधानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः ।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव ।।30।।
सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना तु या ।
निरंजने विलीयते मनोवायू न संशयः ।।49।।
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
(ब्रह्मविन्दूपनिषद्)
भगवान श्रीशंकराचार्यजी नादानुसन्धान की प्रार्थना करते हुए कहते हैं -
नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।
(योगतारावलि)
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
शब्द गह्यो जिव संशय नाहीं, साहब भयो तेरे संग ।।
(कबीर साहब)
पंच शब्द तहँ पूरन नाद । अनहद बाजै अचरज विसमाद ।
(गुरु नानक)
इसी नादब्रह्म को शब्दब्रह्म कहकर सन्त सुन्दरदासजी इस प्रकार वर्णन करते हैं -
शब्दब्रह्म परिब्रह्म भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये ।।
इसी भाँति पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने इस पुस्तक में वेद, उपनिषद् एवं सन्त-साधना का इतने सरल ढंग से सामंजस्य कर दिखलाया है, जिससे कि सामान्य ज्ञान प्राप्त जन को भी सहज ही बोधगम्य हो सके ।
एक जमाना था जब कि ‘वेदज्ञान’ अति स्वल्प संख्यक जन तक ही सीमित था । सर्वसाधारण इस ज्ञान से बिल्कुल अनभिज्ञ थे । यहाँ तक कि वे ‘वेदग्रन्थ’ के दर्शन से भी सुदूर थे ।
अतएव आवश्यकता हुई कि वेदान्तर्गत निहित निगूढ़ तत्त्व-ज्ञान सर्वसाधारण तक पहुँचाया जाय और सभी इस ज्ञान को सुलभता से प्राप्त कर उससे यथोचित लाभान्वित हों । इसलिये परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने चारों वेदों का स्वयं अध्ययन एवं मनन कर चारों वेदों से (ऋग्वेद के 53 मन्त्र, सामवेद के 21 मन्त्र, यजुर्वेद के 17 मन्त्र और अथर्ववेद के 9 मन्त्र, कुल 100) सौ मन्त्रें का चयन कर सर्वसाधारण के उपकारार्थ जगत के समक्ष रखा ।
जिस प्रकार राजहंस, नीर-क्षीर को पृथक्-पृथक् कर केवल क्षीर को ग्रहण करता है, ठीक उसी भाँति परमहंस महर्षिजी महाराज ने चारों वेदों से ब्रह्म, जीव, प्रकृति, योग, ध्यान, भक्ति, सत्संग, सदाचार प्रभृति दुग्ध को ग्रहण कर जनता-जनार्दन के लाभार्थ वेद-दर्शन-योग रूप पात्र में रख दिया है ।
प्रस्तुत पुस्तक में वेद-मन्त्रें के सहित उनके भाषा-भाष्य भी दे दिये गये हैं*, जिन पर परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने विशेष कृपा कर स्वानुभूति-टिप्पणी लिखकर इसे और भी चमत्कृत कर दिया है।
[* इस पुस्तक में संगृहीत वेद-मन्त्रों के भाषा-भाष्यकार पं0 श्री जयदेव शर्म्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मण्डल लिमिटेड, अजमेर) हैं । ]
‘वेद-दर्शन-योग’ का प्रकाशन करते हुए मैं अपने को परम सौभाग्यशाली मानता हूँ । परमाराध्य परम पूज्य श्री सद्गुरु महाराज जी की अहैतुकी असीम अनुकम्पा का ही यह प्रत्यक्ष फल है कि मुझे अध्यात्म-ज्ञान की प्यास लगी और आज दस वर्षों से उनकी छत्रच्छाया में रहकर वेद, उपनिषद्, सन्तवाणी तथा उनकी निज अमृतवाणी के पान करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है ।
अन्त में, इस पुस्तक के प्रकाशन-कार्य में जिन सज्जनों से मुझे जैसी सहायता मिली है, वह मेरा हृदय जानता है। उनके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता-ज्ञापन करता हूँ । साथ ही उनके नामोद्धृत नहीं कर, हृदय से अनेकानेक मूक धन्यवाद देता हूँ ।
पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के सान्निध्य से मुझे अपार लाभ हो रहा है। एतदर्थ आशा ही नहीं, मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो इस पुस्तक को अपनाएँगे, वे अपने जीवन को समुज्ज्वल बनाते हुए परम लाभान्वित होंगे ।
गुरुचरणाश्रित -
सन्तसेवी
रक्षाबन्धन, 2013 वि0 ।
[ * इस पुस्तक में संगृहीत वेद-मन्त्रें के भाषा-भाष्यकार पं0 श्री जयदेव शर्म्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मण्डल लिमिटेड, अजमेर) हैं । ]