how to build a website for free

आमुख

सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज एक अत्यन्त सदाचारी एवं तपोनिष्ठ सन्त हैं। वे लोककल्याण के लिए उपनिषद्वाणी तथा सन्तवाणी के आधार पर साधना का प्रचार कर रहे हैं। उनकी साधना की मुख्य प्रक्रियाएँ हैं - दृष्टियोग तथा नादानुसन्धान । उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की है, जिनमें सूक्ष्म भक्ति तथा योग की सूक्ष्म साधना का रहस्योद्घाटन किया है। उनकी प्रचारित साधना का वर्णन वेद में है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर श्री स्वामीजी ने ‘वेद-दर्शन-योग’ की रचना करके दिया है। इस पुस्तक में श्री स्वामीजी महाराज ने वेद-वचनों की तुलना सन्त-वचनों से की है। 
 सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा ऋषि के हृदय में परमात्मा ने वेद का प्रकाश किया और उन्होंने वेद की रचना की । लोग पूछते हैं कि वेद का प्रकाश अब परमपिता परमात्मा की ओर से आता है कि नहीं ? उत्तर में निवेदन है कि प्रकाश आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है; क्योंकि वेदों का ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित है। निम्नलिखित वेदमन्त्र से परिचय प्राप्त कीजिए -
यस्मिन्नृचः साम यजूँ्षि यस्मिन्प्रतिष्ठता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिश्चित्तँ् सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिव-संकल्पमस्तु ।।
यजुर्वेद, अ0 34, मन्त्र 5
  अर्थात् जिस मन में ऋक्, जिसमें यजुः, जिसमें साम, रथ की नाभि में अरों के समान प्रतिष्ठित है, जिसमें प्रजाओं का सकल चित्त निहित है, वह मेरा मन शिवसंकल्प वाला हो ।
 उपर्युक्त मन्त्र से ज्ञात होता है कि वेदों का ज्ञान मनुष्य के मन में है। साधना से उस ज्ञान का साक्षात्कार कर लेने की आवश्यकता है। भारतवर्ष के सन्त कबीर, दादू , नानक आदि ने साधनों के द्वारा उस ज्ञान का साक्षात्कार कर लिया था । इसलिये उनकी वाणी में उन सत्यों का प्रतिपादन मिलता है, जिनका वर्णन वेदों में है । अधिकांश सन्त पढ़े-लिखे नहीं थे तथा वे नीच जाति में उत्पन्न हुए थे । अतः उनमें वेद पढ़ने की बात बहुत दूर थी । जिस युग में कबीर आदि सन्त हुए थे, उस समय ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्’ स्त्री तथा शूद्रों को वेद नहीं पढ़ना चाहिये--का बोलवाला था। उस समय कबीर साहब को कौन पढ़ाता । तथापि सन्तों की वाणी में वेदवचनों से आश्चर्यजनक साम्य है। नीचे लिखे ऋग्वेद के एक मन्त्र से संत कबीर की वाणी की तुलना कीजिये ।
अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णाविदज्जरितारम् ।
                   मृडा सुक्षत्र मृडय ।
ऋग्वेद, मंडल 7, सू0 89 ।।4।।
 अर्थात् मैं जल में खड़ा हूँ और प्यास से कष्ट पा रहा हूँ । हे परमात्मा! मुझे सुखी करो और मेरे द्वारा अन्यों को भी सुखी कराओ।
पानी बिच मीन पियासी । मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी ।।
आतम ज्ञान बिना सब झूठा । क्या मथुरा क्या कासी ।।
 वेद में इड़ा तथा पिंगला के संगम पर सुषुम्ना में ध्यान करने का विधान मिलता है। भौंहों के बीच में; आज्ञाचक्र में इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियाँ मिलती हैं । इसी संगम पर सुषुम्ना नाड़ी भी है । इस स्थान पर ध्यान करना ही दृष्टियोग है - यही सन्तमत-साधना का एक मुख्य सोपान है। इसे अभिमुख ध्यान भी कहा जाता है। देखिये ‘वेद-दर्शन-योग’ का अभिमुख दृष्टियोग प्रकरण ।
 लेकिन वेद में इड़ा और पिंगला को क्रम से गंगा और यमुना कहा गया है। सन्तवाणी में भी यही बात है। दोनों का यह आलंकारिक नाम भी इस बात का प्रमाण है कि सन्त को बिना पढ़े-लिखे भी वेदवाणी का ज्ञान उनकी साधना की सफलता के कारण होता है। सन्त-साधना में ध्यान की अपूर्व महिमा है। सन्त कबीर साहब स्वयं कहते हैं:-
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, माणिक लावै सोय ।।
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
 मूठी लाया ज्ञान की, जा में वस्तु अनेक ।।
 वेद में भी ध्यान द्वारा मोक्ष-प्राप्ति की बात लिखी हुई है। नीचे कुछ ऋचाएँ तथा सन्तवाणियाँ इसका स्पष्टीकरण करने के लिये दी जाती हैं -
 इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या ।
 असिकन्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया ।।
ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 7515
 महर्षि दयानन्दजी महाराज इस मन्त्र का अर्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका ग्रन्थ के प्रामाण्याप्रामाण्य विषयक प्रकरण में लिखते हैं - ‘‘इस मन्त्र में गङ्गा आदि नाम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, कूर्म और जठराग्नि नाड़ियों के हैं, उनमें योगाभ्यास से परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य लोग सब दुःखों से तर जाते हैं । क्योंकि उपासना नाड़ियों के ही द्वारा धारण की जाती है ।’’
 ऋग्वेद के इसी ‘इमं मे गंगे’ आदि वाले सूक्त के अन्त में व्याख्या रूप से कई शाखाओं में नीचे लिखा मन्त्र मिलता है -
 सितासिते सरिते यत्र सङ्गमे तत्रप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति ।
 ये वै तन्वं विसृजन्ति धीरास्ते जनासो अमृतत्वं भजन्ते ।।
 अर्थात् जो ध्यानी लोग, जहाँ (सित) इड़ा और (असित) पिंगला - ये दोनों नाड़ियाँ मिलती हैं, उस संगम स्थान सुषुम्ना में स्नान करते हैं, वे योगी शरीर छोड़ने के पश्चात् अमृतत्व को भजते हैं ।
 गङ्गा और यमुना शब्दों का स्पष्टीकरण हठयोग प्रदीपिका में इस प्रकार मिलता है -
 इडा भगवती गङ्गा पिङ्गला यमुना नदी ।
 इडा पिङ्गलयोर्मध्ये बालरंडा च कुण्डली ।।
 अब सन्त कबीर का एक वचन सुनिये -
 गङ्ग जमुन के अन्तरे, सहज सुन्न के घाट ।
 तहाँ कबीरे मठ किया, खोजत मुनि जन बाट ।।
 उसी को सन्त शिवनारायणजी इस भाँति कहते हैं -
 सिपाही मन दूर खेलन मत जैये ।
 घर में ही गंगा घर में ही यमुना, तेहि बिच पैठ नहैये ।
 सन्त वचनों का वेद वचनों से साम्य है, इसके लिये दो उदाहरण ऊपर दिये गये हैं । लेकिन प्रस्तुत पुस्तक वेद-दर्शन-योग में सैकड़ों उदाहरण ऐसे साम्य के मिलेंगे । यह तुलनात्मक अध्ययन जिज्ञासुओं को वेदवाणी के अध्ययन के लिये प्रेरणा देगा । यह पुस्तक पूज्य गुरुदेव के गम्भीर मनन और चिन्तन का फल है। इसकी रचना करके श्री स्वामीजी ने अध्यात्म-विद्या के प्रेमियों तथा संतमत के सत्संगियों का बड़ा उपकार किया है। हम सब ओर से पूज्य गुरुदेव के चरण-कमलों में श्रद्धा-निवेदन करते हैं तथा कृतज्ञता- ज्ञापन करते हैं ।
विश्वानन्द
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
श्रावण पूर्णिमा 2013 वि0
कोशी कॉलेज
खगड़िया (मुंगेर)

प्रकाशक की ओर से
(प्रथम संस्करण) 

प्रातः स्मरणीय अनन्त श्रीविभूषित सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज प्रणीत ‘वेद-दर्शन-योग’ को प्रकाशकीय माध्यम से परिचय कराना, मानो पूषण (सूर्य) को प्रदीप द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयास करना है । प्रस्तुत पुस्तक स्वयं देदीप्यमान होने के कारण अपना प्रदर्शन आप करती है; किन्तु पुस्तक-प्रकाशन के प्रसंग में विद्वानों में भूमिका, प्राक्कथन, प्रकाशकीय, दो शब्द आदि लिखने की जो परिपाटी चली आ रही है, उसी के रक्षणार्थ मुझे यहाँ दो शब्दों का लिखना आवश्यक हो गया, यद्यपि मैं कोई विद्वान नहीं, एक तुच्छ सत्संगी मात्र हूँ ।
 आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार 52 वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है, उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है। इतने लम्बे अरसे से वेद, उपनिषद् एवं सन्तवाणियों का अध्ययन तथा मनन एवं उनके अन्तर्निहित निर्दिष्ट साधनाओं का अभ्यास करते हुए परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव मात्र सदाचार-समन्वित हो दृष्टियोग और शब्दयोग (नादानुसंधान) अर्थात् विन्दुध्यान और नादध्यान के द्वारा ब्रह्म-ज्योति और ब्रह्मनाद की उपलब्धि कर परम प्रभु सर्वेश्वर को उपलब्ध कर सकता है। इसी विषय का स्पष्टीकरण उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है । साथ ही उन्होंने यह भी समझाने की भरपूर चेष्टा की है कि प्राचीन कालिक मुनि-ऋषियों से लेकर अर्वाचीन साधु-संतों तक की अध्यात्म-साधना पद्धति एक है । वेद-उपनिषदादि में वर्णित अध्यात्म- ज्ञान और कबीर, नानक, तुलसी प्रभृति आधुनिक सन्तों के व्यवहृत आत्मज्ञान में ऐक्य या पार्थक्य है ? - इस भ्रम के निवारणार्थ ‘वेद- दर्शन-योग’ का प्रणयन किया गया है । अथवा सीधे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक उपर्युक्त ऐक्य वा पार्थक्य के असमंजस को मिटाकर पूर्ण सामंजस्य की स्थापना करती है । प्रमाणार्थ - ऋग्वेद के निम्नलिखित युगल मंत्रें में ब्रह्मतेज (ब्रह्मज्योति) और ब्रह्मनाद का वर्णन मिलता है ।
 तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। 10।। सू0 62, मंडल 3
 अर्थात् – " जो परमेश्वर हमारी बुद्धियों को अच्छी प्रकार उत्तम मार्ग में प्रेरित करता है, उस सर्वोत्पादक प्रकाश-स्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वदाता परमेश्वर के उस अनुपम, सर्वश्रेष्ठ, पापों को भून डालने- वाले, समस्त कर्म-बन्धनों को भस्म करनेवाले तेज को धारण करें और उसी का ध्यान करें ।" तथा -
 शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
 चरन्ति विद्युतो दिवि ।। 3 ।। सू0 41, मंडल 9
 अर्थात् - आकाश में बिजलियाँ चमकती हैं और उस समय उस बलवान, पापशोधक का शब्द वृष्टि के समान सुन पड़ता है । साधक के मूर्धा स्थल में विद्युत की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं, वह अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है । वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
 उपनिषद् में भी परमात्मा से प्रार्थना है कि मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल-तमसो मा ज्योतिर्गमय । और मुक्तिकोपनिषद् में भगवान श्रीहनुमानजी को आदेश देते हैं -
 बहुशास्त्रकथा कन्थारोमन्थेन वृथैव किम् ।
 अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ।।63।।
 अर्थात्कृबहुत-से शास्त्रें की कथाओं को मथने से क्या फल ? हे हनुमान! अत्यन्त यत्नवान होकर अपनी अन्तर्ज्योति की खोज करो ।
 भगवान बुद्ध कहते हैं -
 अन्धकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ । - धम्मपद ।
 अर्थात् अन्धकार से घिरे तुम प्रकाश की खोज क्यों नहीं करते ? इसी अन्तःप्रकाश को सन्त कबीर साहब, ‘गुरु दियना’ और ‘ब्रह्म-अग्नि’ की संज्ञा देते हैं और कहते हैं -
गुरु दियना बारु रे, यह अन्धकूप संसार ।।
अपने घट दियना बारु रे ।
नाम का तेल सुरत की बाती, ब्रह्मअगिन उद्गारु रे ।।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं -
अन्तर जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा ।
आरति संग सतगुरु के कीजै । अंतर जोत होत लख लीजै ।।
(तुलसी साहब)
 इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
 खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।
(राधाास्वामी साहब)
 और महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं -
 खोज करो अन्तर उजियारी, दृष्टिवान कोइ देखा है ।
------------------------------
निसि दिन सुरत अधर पर कर कर, अन्धकार फट जाता है ।।
इत्यादि ।
 उपर्युक्त उपनिषद् एवं सन्तवाणियों में वर्णित प्रक्रियाओं के नाम ही दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा आदि हैं । और नादानुसन्धान- विषयक विशेष अभिज्ञता के लिए वेदों में जो आदेश है, उसका संक्षिप्त वर्णन इसी पुस्तक के ज्योति और अन्तर्नाद, आत्मा की सत्यस्वरूप प्रिय वाणी तथा नाद प्रकरण में पढ़कर जानिये । नादविन्दूपनिषद् में नादानुसन्धान वा नादध्यान का वर्णन इस प्रकार है -
 ब्रह्मप्रणवसंधानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः ।
 स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव ।।30।।
 सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना तु या ।
 निरंजने विलीयते मनोवायू न संशयः ।।49।।
 द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
 शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
(ब्रह्मविन्दूपनिषद्)
 भगवान श्रीशंकराचार्यजी नादानुसन्धान की प्रार्थना करते हुए कहते हैं -
नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।
(योगतारावलि)
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
शब्द गह्यो जिव संशय नाहीं, साहब भयो तेरे संग ।।
(कबीर साहब)
पंच शब्द तहँ पूरन नाद । अनहद बाजै अचरज विसमाद ।
(गुरु नानक)
 इसी नादब्रह्म को शब्दब्रह्म कहकर सन्त सुन्दरदासजी इस प्रकार वर्णन करते हैं -
 शब्दब्रह्म परिब्रह्म भली विधि जानिये ।
 पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये ।।
 इसी भाँति पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने इस पुस्तक में वेद, उपनिषद् एवं सन्त-साधना का इतने सरल ढंग से सामंजस्य कर दिखलाया है, जिससे कि सामान्य ज्ञान प्राप्त जन को भी सहज ही बोधगम्य हो सके ।
 एक जमाना था जब कि ‘वेदज्ञान’ अति स्वल्प संख्यक जन तक ही सीमित था । सर्वसाधारण इस ज्ञान से बिल्कुल अनभिज्ञ थे । यहाँ तक कि वे ‘वेदग्रन्थ’ के दर्शन से भी सुदूर थे ।
 अतएव आवश्यकता हुई कि वेदान्तर्गत निहित निगूढ़ तत्त्व-ज्ञान सर्वसाधारण तक पहुँचाया जाय और सभी इस ज्ञान को सुलभता से प्राप्त कर उससे यथोचित लाभान्वित हों । इसलिये परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने चारों वेदों का स्वयं अध्ययन एवं मनन कर चारों वेदों से (ऋग्वेद के 53 मन्त्र, सामवेद के 21 मन्त्र, यजुर्वेद के 17 मन्त्र और अथर्ववेद के 9 मन्त्र, कुल 100) सौ मन्त्रें का चयन कर सर्वसाधारण के उपकारार्थ जगत के समक्ष रखा ।
 जिस प्रकार राजहंस, नीर-क्षीर को पृथक्-पृथक् कर केवल क्षीर को ग्रहण करता है, ठीक उसी भाँति परमहंस महर्षिजी महाराज ने चारों वेदों से ब्रह्म, जीव, प्रकृति, योग, ध्यान, भक्ति, सत्संग, सदाचार प्रभृति दुग्ध को ग्रहण कर जनता-जनार्दन के लाभार्थ वेद-दर्शन-योग रूप पात्र में रख दिया है ।
 प्रस्तुत पुस्तक में वेद-मन्त्रें के सहित उनके भाषा-भाष्य भी दे दिये गये हैं*, जिन पर परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने विशेष कृपा कर स्वानुभूति-टिप्पणी लिखकर इसे और भी चमत्कृत कर दिया है।
[* इस पुस्तक में संगृहीत वेद-मन्त्रों के भाषा-भाष्यकार पं0 श्री जयदेव शर्म्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मण्डल लिमिटेड, अजमेर) हैं । ]
 ‘वेद-दर्शन-योग’ का प्रकाशन करते हुए मैं अपने को परम सौभाग्यशाली मानता हूँ । परमाराध्य परम पूज्य श्री सद्गुरु महाराज जी की अहैतुकी असीम अनुकम्पा का ही यह प्रत्यक्ष फल है कि मुझे अध्यात्म-ज्ञान की प्यास लगी और आज दस वर्षों से उनकी छत्रच्छाया में रहकर वेद, उपनिषद्, सन्तवाणी तथा उनकी निज अमृतवाणी के पान करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है ।
 अन्त में, इस पुस्तक के प्रकाशन-कार्य में जिन सज्जनों से मुझे जैसी सहायता मिली है, वह मेरा हृदय जानता है। उनके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता-ज्ञापन करता हूँ । साथ ही उनके नामोद्धृत नहीं कर, हृदय से अनेकानेक मूक धन्यवाद देता हूँ ।
 पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के सान्निध्य से मुझे अपार लाभ हो रहा है। एतदर्थ आशा ही नहीं, मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो इस पुस्तक को अपनाएँगे, वे अपने जीवन को समुज्ज्वल बनाते हुए परम लाभान्वित होंगे ।
गुरुचरणाश्रित -
सन्तसेवी
रक्षाबन्धन, 2013 वि0 ।
[ * इस पुस्तक में संगृहीत वेद-मन्त्रें के भाषा-भाष्यकार पं0 श्री जयदेव शर्म्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मण्डल लिमिटेड, अजमेर) हैं । ]

प्राक्कथन 

महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के श्रीचरणों में सत्संग का शुभ अवसर मुझे कम प्राप्त हो सका है, यद्यपि महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के व्यक्तित्व तथा उनकी साधना के सम्बन्ध में मेरे प्रिय शिष्य तथा मित्र प्रोफेसर विश्वानन्दजी से चिरकाल से चर्चा होती आ रही थी । जो थोड़े-से क्षण मैंने महषिजी महाराज के सान्निध्य में व्यतीत किये, वे मेरे लिये महत्त्वपूर्ण हैं; क्योंकि उनकी मुखाकृति की दीप्ति स्वतः ही भक्तों के हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। उनके मुखमण्डल की आभा उनके अन्तर्ज्ञान तथा चिरसाधना का प्रतीक है । महर्षिजी की प्रस्तुत रचना-‘वेद-दर्शन-योग’ - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के कुछ प्रमुख मंत्रें को हमारे सामने रखती है और उनमें निहित तत्त्वज्ञान का विश्लेषण करती है । वैसे तो मंत्रें के जो अर्थ दिये गये हैं, वे श्री जयदेवजी शर्मा विद्यालंकार के भाषा-भाष्य से उद्धृत हैं, किन्तु स्थान-स्थान पर श्रीस्वामीजी ने अन्य ग्रन्थों तथा प्रमुख सन्तों की वाणियों के द्वारा उन्हें सम्पुष्ट किया है और यथास्थान अपनी व्यक्तिगत टिप्पणी भी दी है ।
 विषय-सूची के देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि महर्षिजी महाराज ने वेदों की अनुपम तथा अथाह जल-राशि में से केवल कुछ थोड़े-से मोती निकालकर उन्हें हमारे सामने उपस्थित किया है । हमारी समझ में विषयों का चयन किसी पूर्व निश्चित सिद्धान्त के आधार पर अथवा सुपरिभाषित परिधि के अन्दर नहीं हुआ है । सत्संग के सिलसिले में और जनसाधारण के आध्यात्मिक हित-साधन की दृष्टि से कुछ उपयुक्त विषय उसी प्रकार चुन लिये गये हैं, जिस प्रकार एक भ्रमर कमनीय कुसुमकलित विस्तृत उपवन में स्वच्छन्द विचरण करता हुआ यदृच्छा से जहाँ-तहाँ फूलों पर बैठ जाता है और उनसे मकरन्द-विन्दुओं की मधुकरी का अर्जन कर लिया करता है । यही कारण है कि जहाँ प्रस्तुत संकलन में ब्रह्म, मोक्ष, योग, जीव, सृष्टि आदि दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों को स्थान मिला है, वहाँ साथ-ही-साथ सत्संग और गोवध-निषेध आदि आचार-व्यवहार के विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है ।
 फिर भी सम्भवतः यह कहा जा सकता है कि महर्षिजी ने दृष्टियोग-साधन तथा नादानुसंधान को इस संकलन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय बनाया है । यद्यपि मैं इन विषयों पर प्रामाणिक रूप से अपने विचार व्यक्त करने का अधिकारी नहीं हूँ , फिर भी मेरी समझ में यह उपयुक्त होगा कि जन-साधारण को इन विषयों का कुछ प्रारंभिक ज्ञान हो जाय, ताकि वह वेदमंत्रें की गहराई में जाने की चेष्टा करे । कवि ने ठीक ही कहा है कि -
 
  जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ।
 मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ ।।
 हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि आज के इस तथाकथित वैज्ञानिक तथा भौतिकवादी युग में तत्त्वज्ञान के गहरे पानी में पैठने को कौन कहे, हममें से अधिकांश व्यक्ति किनारे बैठने का भी अभ्यास नहीं करते, बल्कि यों कहिये कि उस दिशा में जाने की भी प्रवृत्ति उन्हें नहीं होती; वे तो विपरीत दिशा में ही बढ़ते हुए दीख पड़ते हैं ।
 जहाँ तक हमने योग तथा नाद के सिद्धान्त को समझने की चेष्टा की है, हम उसे संक्षेप में यहाँ रखना चाहेंगे । योग को हम दो मुख्य कोटियों में विभक्त कर सकते हैं:- पिपीलकयोग और विहंगमयोग । पिपीलकयोग का ही दूसरा नाम हठयोग है और विहंगमयोग का नामान्तर ध्यानयोग है। पिपीलक कहते हैं चींटी को । जिस तरह जमीन पर रहनेवाली चींटी किसी मीठे पके फलोंवाले पेड़ पर धीरे-धीरे चढ़ती है और फलों के रस का कुछ देर तक मधुर- मधुर आस्वादन करके फिर जमीन पर उतर जाती है, उसी प्रकार एक हठयोगी योग की कुछ प्रक्रियाओं के द्वारा कुछ देर तक अपनी प्राणवायु का नियंत्रण करके अपनी चेतना को ब्रह्मज्योति में लीन कर देता है और आनन्द का आस्वादन करता है, किन्तु उन प्रक्रियाओं के अन्त होते-होते उसे अपनी उच्चतम भाव-भूमि अथवा मधुमती भूमिका को छोड़कर पुनः पूर्ववत् मर्त्यलोक और उसकी सामान्य भाव-भूमि पर उतर आना पड़ता है। विहंगमयोग पिपीलकयोग से भिन्न है। विहंगम कहते हैं पक्षी को । जिस तरह एक पक्षी सदा-सर्वदा पेड़ की ऊँचाई पर रहा करता है और वहीं से उड़-उड़कर अनन्त विस्तृत व्योम-वितान की सैर करता है तथा मनमाने मधुर फलों और उनके रसों का आस्वादन करता है, वह कभी उच्च भाव-भूमि से नीचे नहीं उतरता; उसी प्रकार विहमि-योगी अथवा ध्यानयोगी अपनी साधना तथा समाधि के लिये किन्हीं विशेष शारीरिक निरोधों एवं यौगिक प्रक्रियाओं पर ही निर्भर नहीं रहता, वह तो ध्यान की सतत शाश्वत मादकता एवं ब्रह्ममिलन के परमानन्द की अजस्त्रधारा में डूबता-उतराता रहता है और शून्य गगन में स्वच्छन्द विहार करता हुआ परमानन्द-रूपी अमृत का छक-छककर पान करता रहता है । सच पूछिये तो कबीर आदि सन्तों ने भी जितना अधिक महत्त्व ध्यानयोग को दिया है, उतना हठयोग को नहीं, यद्यपि हठयोग की प्रक्रियाएँ ध्यानयोग की सिद्धि के लिये उपयोगी हैं । केवल अन्तर यह है कि ध्यान मुख्य है और शारीरिक प्रक्रियाएँ आनुषंगिक । इसीलिये कहीं-कहीं तो निर्गुण सन्तों ने प्राणायाम आदि निरी शारीरिक नियंत्रण-परक क्रियाओं का खण्डन किया है ।
 योगियों ने साधना की दृष्टि से इस शरीर को विश्व का प्रतीक जानकर दो भागों में विभक्त किया है- पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड । उन्होंने इसमें छः चक्रों तथा सहस्त्रदल कमल का भी वर्णन किया है । इन चक्रों के नाम हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञाचक्र । आज्ञाचक्र से परे है सहस्त्रदल कमल । प्रथम पाँच चक्र तो पिण्ड में अर्थात् शरीर में कण्ठ तक नीचे के हिस्से में अवस्थित हैं; किन्तु अन्तिम अर्थात् आज्ञाचक्र का आधा अंश पिण्ड में तथा आधा अंश ब्रह्माण्ड में है । साधकों ने इसकी कल्पना ही नहीं की है- अपितु इसका अभ्यास कर साक्षात् भी किया है । कुण्डलिनी जो विकृतिरूपिणी प्रकृति तथा बन्धनरूपिणी माया का प्रतीक है, सामान्यतः सबसे निचले चक्र अर्थात् मूलाधार में अवस्थित रहा करती है । फलतः हम सभी अपने शरीर के निचले हिस्से तथा उसमें केन्द्रित वासनाओं में लिप्त रहा करते हैं । यदि हमें साधना-पथ का पथिक होना है तो मूलाधार में सोयी हुई कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत् करना होगा और उसकी गति को ऊर्ध्वमुख करना होगा, जिससे वह सभी चक्रों का भेदन करती हुई अर्थात् प्रकृति और माया के आवरणजाल को काटती हुई मर्त्यलोक से उठकर ब्रह्माण्डस्थित आज्ञाचक्र में पहुँचे; और अभ्यासी उससे भी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र में सहस्त्रदल कमल में विराजमान होकर ब्रह्म तथा उसकी ज्योति तथा अनवरत होनेवाले अनाहत नाद के साथ एकाकार अथवा तादात्म्य-भाव सम्पन्न कर सके । अत्यन्त सरल शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जीवात्मा जबतक प्रकृति और वासनाओं के निम्न स्तर पर रहता है तबतक वह ब्रह्म से पृथक् और परे रहता है । वह अनवरत साधना के द्वारा वासना और माया पर विजय प्राप्त करके ब्रह्म के इतना निकट और इतना सदृश हो सकता है कि समाधि की मधुमती भूमिका में वह अपना अस्तित्व ही भूल जाय और अनाहत नाद अथवा शब्द बनकर बोल उठे अहं ब्रह्मास्मि ।
 सन्तमत अथवा योगमार्ग में ‘अनाहत नाद’ अथवा ‘शब्द’ बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। ‘अनाहत’ का अर्थ है बिना आघात अथवा चोट के उत्पन्न । प्रायः जो शब्द अथवा ध्वनि हम सुना करते हैं या स्वयं अपने कण्ठ से निकालते हैं, वह आघातजन्य होती है, चाहे वह आघात किसी द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ संघर्ष का परिणाम हो अथवा शरीर के किसी अंग के साथ वायु के सम्पर्क तथा प्रस्पन्दन का परिणाम हो । किन्तु जिस नाद अथवा शब्द की चर्चा साधना के क्षेत्र में हुई है, वह तो मानो शून्य गगन में बिना किसी आघात के उत्पन्न होता है, और उसे केवल योगी ही अपने अन्तर में सुन सकता है, इतर नहीं । अत्यन्त सरल शब्दों में हम यह कहेंगे कि हम शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि के लिये अपने से इतर किन्हीं अन्य पदार्थों की अपेक्षा रखते हैं । अतः हमारा समग्र सुख तथा आनन्द उन अन्य पदार्थों के आश्रित रहा करता है । अर्थात् हम आत्माश्रित न होकर सदा पराश्रित रहा करते हैं और हम जानते ही हैं कि ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।’ योगी अथवा साधक भी सुख तथा आनन्द की आकांक्षा करता है-और करे क्यों नहीं, जब ब्रह्म ही आनन्दमय है-किन्तु वह यह चाहता है कि समग्र रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि उसे उसके अन्तःप्रदेश में ही मिल जाय; उसकी दृष्टि अपने से बाहर न देखकर सदा अपने ही अन्दर देखा करे, उसकी रसना बाहर के फल-मूल और मिष्टान्न की लालसा त्यागकर जीव-ब्रह्म-मधुर मिलन-जन्य रस का आस्वादन करे, उसकी कान उसकी अन्तरात्मा में उत्थित सतत मधुर ओ3म् अथवा सोहं ध्वनि को सुना करें । यही ध्वनि योगी का परम लक्ष्य है; इसी का दूसरा नाम है-शब्दब्रह्म ।
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने चारों वेदों में से चुने हुए कुछ मन्त्रें को इस दृष्टि से भी उपस्थित किया है कि इस अनाहत नाद अथवा शब्द को वेदों के पश्चाद्वर्ती युग अथवा वेदों से इतर साहित्य की वस्तु न मान लें, बल्कि यह समझें कि जब से, अर्थात् अनादि काल से वेद हैं, तभी से हमारे ऋषि-मुनियों ने योग-साधना की सरणि का अनुसरण किया है । कभी-कभी इस प्रकार की विचारधारा व्यक्त की जाती है कि योग का सूत्रपात पातंजल-दर्शन से हुआ और निर्गुण-भावना तथा अनाहत नाद आदि का प्रचार कबीर आदि सन्तों के द्वारा हुआ । यह विचार-धारा सर्वांशतः भ्रान्त है, जैसा कि हम महर्षिजी महाराज के प्रस्तुत संकलन और उसमें प्रतिपादित तत्त्वज्ञान-विश्लेषण को हृदयंगम करके समझ सकेंगे ।
 हम भगवान से प्रार्थना करेंगे कि महर्षिजी महाराज अपने भक्तों तथा अध्यात्म-प्रेमी जनता के हित के लिये भविष्य में इस प्रकार की अनेक रचनाएँ प्रतिपादित करें तथा उन्हें सुलभ बनावें ।
धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी, शास्त्री
एम-ए-, पी-एच-डी, ए-आई-ई- (लन्दन)
प्राचार्य, ट्रेनिंग कॉलेज, भागलपुर ।
21-11-1955 ई0

भूमिका 

जम्बूद्वीपान्तर्गत भरतखण्ड-निवासी आर्यों के धर्मग्रन्थ का नाम वेद है। यह ग्रन्थ इतना प्राचीन है कि संसार का कोई भी ग्रन्थ इसकी प्राचीनता की बराबरी का नहीं सुना जाता है । भारत का यह अति प्रतिष्ठित धर्मग्रन्थ चार नामों से विख्यात है - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद; ये ही चार वेद कहकर प्रसिद्ध हैं । जो पवित्र भावात्मक विचार इन चारों में वा इनमें से किसी एक में भी नहीं मिले, भारतीय आर्य उसे धर्ममय नहीं मानते । वेदों के ज्ञाता पहले भी कम थे और अब भी कम हैं । ये चारों वेद-संहिताएँ बहुत भव्य और अति विशाल वाङ्मय हैं । पुस्तक रूप में इनका दर्शन भी बहुत लोगों को पहले भी अति दुर्लभ था और अब भी उनको अति दुर्लभ नहीं, तो दुर्लभ अवश्य है । आर्यसमाज के संस्थापक परमपूज्य वेद-विद्या में अग्रणी महर्षिवर स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी महाराज की जनसमूह पर अति अनुकम्पा से ही वेद पुस्तकों का दर्शन अति दुर्लभ से केवल दुर्लभ होकर है । अतएव उन अति श्रद्धेय, अति पूज्य महर्षि को मैं नतमस्तक होकर कोटि-कोटि दण्ड-प्रणाम करता हूँ । आर्यसमाज के उन विद्वान और धनवान महाशयों को भी, जिनके प्रयास और धनव्यय द्वारा चारों वेद-संहिताएँ भारती भाषा में अनुवाद- सहित मुद्रित होकर प्रकाशित हुईं और मूल्य देने पर सबको उपलब्ध हैं, अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ । लड़कपन में ही मेरी रुचि भगवद्भक्ति, ज्ञान और ध्यान की ओर हो गई थी । हो सकता है कि वह मेरे पूर्व जन्म के संस्कार के कारण हो; क्योंकि लड़कपन में मुझे उस प्रकार का सि नहीं था । मैं उपर्युक्त विषयों का खोजी विद्याध्ययनकाल से ही था। विद्यालय छोड़कर वैरागी भेष धर मैं कथित विषयों का विशेष खोजी बना । जहाँ-तहाँ स्वल्प भ्रमण कर अन्वेषण करने पर कुछ लोगों से विदित हुआ कि कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों का धर्मज्ञान-विचार वेदज्ञान से ऊँचा है और इन सन्तों के अनुयायियों के अतिरिक्त दूसरे वेद विद्यावाले महाशयों से विदित हुआ कि उपर्युक्त सन्तों का ज्ञान वेदानुकूल नहीं है और श्रद्धा-योग्य नहीं है। मैं सन्तों के ज्ञान को अपना चुका था और चाहता था कि वेदों का भारती-भाषा में अनुवाद-सहित मूलग्रन्थ भी मिले तो निज से पढ़कर जानूँ कि विदित किये गये दोनों पक्षों में से किस पक्ष का कहना यथार्थ है । मैं सन्तों की वाणी में उनके ज्ञान की उत्कृष्टता का बोध करता और सोचता कि यह परमोत्कृष्ट ज्ञान क्या वेद में नहीं है ? क्या वेद इस ज्ञान से हीन है ? और यह परमोत्कृष्ट ज्ञान, श्रद्धा करने योग्य क्यों नहीं है ? अपने इन प्रश्नों के उत्तर के लिये मैं यही बोध करता कि मुझको चाहिये कि मैं स्वयं वेदों का दर्शन करूँ और उनके अर्थों को पढ़ँन्न् । पहले मुझको लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदयजी का ‘गीता-रहस्य’ पढ़ने को मिला, जिसमें लिखा पाया-‘सारे मोक्षधर्म के मूलभूत अध्यात्म-ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास इत्यादि आधुनिक साधु-पुरुषों तक अव्याहत चली आ रही है ।’ (पृष्ठ 250) । यह पढ़कर मैं बड़ा प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ । फिर मेरे परम प्रेमी और पूर्ण विश्वासपात्र स्वामी आत्मारामजी (पूर्व नाम पंडित वैदेही शरण दूबेजी) ने कुछ वेद-मन्त्रें को भाषा-अर्थ-सहित वैदिक विहंगम-योग’ के नाम से छपवाया । इस छोटी अच्छी पुस्तिका को मैंने पढ़ा । मेरे एक मित्र ने मुझे 32 उपनिषदों के अँगरेजी अनुवाद का एक ग्रन्थ दिया । कठ, केन आदि कई उपनिषदों का एक संकलन बंगला अनुवाद-सहित मिला, भारती भाषा में अनुवाद-सहित छान्दोग्यादि कई उपनिषद् मेरे परम प्यारे श्री बाबू बुद्धू कुँवरजी सत्संगी अध्यापक महाशय ने दी और 112 उपनिषदों का एक समुच्चय केवल मूल संस्कृत में मैंने मुरादाबाद निवासी पूज्यमान पण्डित ज्वालादत्तजी षट्शास्त्री महोदय जी के परामर्शानुसार हरिद्वार में खरीद लिया । इन सबको मैंने पढ़ डाला और इन सबमें से उत्तमोत्तम ज्ञान-ध्यान की बातें संकलन कर उन्हें ‘सत्संग-योग’ नाम की पुस्तक में छपवा दिया, जिसका प्रथम प्रकाशन सन् 1940 ई0 में हुआ ।
 कबीर पंथ के एक विद्वान महन्त महोदयजी का लेख ‘कल्याण पत्र’ के विक्रमी सम्वत् 1993 के विशेषाङ्क ‘वेदान्ताङ्क’ में निकला, जिसका कुछ अंश निम्नलिखित है - (लेखक-महन्त श्रीरामस्वरूप दासजी, गुरु शान्ति साहब) -‘महात्मा कबीरदास एक बहुत बड़े लोक-शिक्षक थे । उन्होंने मनुष्य-समाज को सत्य-धर्म की शिक्षा देने की जीवन भर चेष्टा की । और सत्य धर्म वेदान्त ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं । फिर भी कबीर साहित्य से अनभिज्ञ कितने ही लोगों का यह कहना है कि कबीर साहब ने वेद और वेदान्त को नहीं माना है; परन्तु ऐसा कहना अपनी अनभिज्ञता का परिचय देने के सिवा और कुछ नहीं । कबीर साहब एक स्थल में कहते हैं-‘वेद पुराण कहो किन झूँठा, झूँठा जो न विचारा ।’ इन सबको पढ़कर मैं इस विश्वास पर पहुँचा कि कथित सन्तगण का ज्ञान वेदबाह्य और अश्रद्धा करने योग्य नहीं है । ‘इन सन्तों ने वेदों से भी ऊँचे ज्ञान का कथन कर संसार में प्रचार किया है’-यह बात विशेष अनुसन्धान नहीं करने के कारण ही कही गई है। यथार्थ में सन्तों का ज्ञान वेदों में है ही । इस परिणाम पर आने पर भी मैं उत्सुक था कि मैं चारों वेदों का भारती भाषा में अनुवाद-सहित दर्शन करूँ और उन्हें पढ़ूँ। अन्त में उपर्युक्त अपने परम प्रिय स्वामी आत्मारामजी के कहने पर मैंने अजमेर निवासी आर्य पण्डित जयदेवजी शर्मा, विद्यालङ्कार, मीमांसातीर्थ महोदय के पास से उन्हीं के द्वारा चारों वेद-संहिताओं के किये हुए भाषा-भाष्य को मूल सहित मँगाया । ये चौदह जिल्दों में हैं । मैं इन सबको पढ़ गया और इनमें से जो संग्रह किया, वही ‘वेद-दर्शन-योग’ के नाम से प्रकाशित किया गया है।
 इस नाम में ‘दर्शन’ शब्द का वही अर्थ है, जो श्रीमद्भगवद्- गीता के अध्याय 11 के ‘विश्वरूप-दर्शन-योग’ में ‘दर्शन’ शब्द का है ।
 वेद-संहिताओं के उपर्युक्त भाष्य को ही पढ़कर मैंने ‘वेद-दर्शन- योग में टिप्पणियाँ लिखी हैं । इन्हें लिखकर वेद और सन्तों के ज्ञान के विषय में मैं उसी परिणाम पर अति दृढ़ता और विशेष प्रसन्नता से हूँ, जिस परिणाम पर आने के विषय में मैं पहले लिख चुका हूँ ।
 ‘वेद-दर्शन-योग’ की पाण्डुलिपि तैयार करने और छपवाने में श्री बाबू उदितनारायण चौधरीजी, प्रधानाध्यापक, माध्यमिक विद्यालय, झण्डापुर (भागलपुर), श्रीमहावीरजी ‘संतसेवी’ तथा डॉक्टर उपेन्द्रनारायण वर्म्माजी, बरौनी (मुंगेर) ने विशेष प्रयास किया है । इनके अतिरिक्त अन्यान्य सत्संगी महाशयों ने भी प्रतिलिपि तैयार करने में प्रयास किया है । अतः मैं इन सब धर्मप्रेमी महाशयों को हार्दिक धन्यवाद और शुभाशीर्वाद देता हूँ । साथ ही मैं श्रीमान् डॉक्टर धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी, शास्त्री, एम0ए0, पी-एच0डी0, ए0आइ0ई0 (लन्दन), प्राचार्य, ट्रेनिंग कॉलेज, भागलपुर को नहीं भूल सकता, जिन्होंने ‘वेद-दर्शन-योग’ की पाण्डुलिपि को निजी प्रसन्नता से पढ़ने और उस पर अपना प्राक्कथन लिखने के अतिरिक्त पुस्तक छपने के समय फाइनल प्रूफ देखने का भी कष्ट उठाया है, मैं इन्हें भी अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ ।
सत्संग-सेवक
‘मेँहीँ’

सम्मति

सन्तमत-उद्गम की ओर
श्री पं0 बिहारीलालजी शास्त्री, बरेली ।
 - सन्तमत का भारतीय जन-जीवन में व्यापक प्रचार है । कबीर और गोरख-पन्थी सन्तों ने अलख की ज्योति जगायी है । उनकी विचारधारा का मूल वेद है । इस तत्त्व का प्रतिपादन प्रसिद्ध महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अपनी ‘वेद-दर्शन-योग’ पुस्तक में किया । इस कृति में योग की मूल प्रेरणा और निराकार ब्रह्म के स्वरूप का सन्तमत और वेद की दृष्टि से विवेचन किया गया है । श्री शास्त्रीजी ने उसी की चर्चा प्रस्तुत लेख में की है ।
 सम्पादक - साप्ताहिक ‘आर्य-मित्र’ ,
 सन्तमत, जिसके प्रवर्त्तक और जोरदार पोषक महात्मा कबीर, गुरु नानकदेव, महात्मा दादू दयाल, दरिया साहब आदि माने जाते हैं, नया मत नहीं है, किन्तु योग की एक विशेष साधना मात्र है । जो इतनी ही सनातन है कि जितना आर्य-धर्म प्राचीन है । इसके पृथक्त्व का कारण यह हुआ कि वेदों को मीमांसकों ने सूत्र और ब्राह्मणों की विधियों का पालक एवं बोलने मात्र की वस्तु मान ली और सन्तलोग वेदादि शास्त्र पढ़े नहीं थे ।
 ‘भूतं भव्यं भविष्यंच सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति’ की घोषणा करनेवाले लोग इस गूढ़ ज्ञान, जिसके वर्णन वेदोपनिषदों में बहुतायत से भरे पड़े हैं, को भूला बैठे । आध्यात्मिकता के इस रहस्य की उपेक्षा करने लगे । और सन्त इसे नयी खोज और वेद से अलग मान बैठे । एक बड़ी खाई दोनों के बीच में बन गयी । कहीं अपने वचनों में सन्तलोग वेदों को हीन भी कह गये । पर अब जब वेदों की हिन्दी टीकाएँ सुलभ हो गयीं और वेद सबके हाथों तक पहुँचे तो सन्तों ने भी देखा कि अन्य सब सत्य विद्याओं के समान इस गूढ़ ज्ञान का उद्गम भी वेद भगवान ही हैं! हमारे सामने महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की लिखी पुस्तक ‘वेद-दर्शन-योग’ है । महर्षिजी ने अनेक वेद मन्त्र प्रस्तुत करके दिखाया है कि ‘नाद-योग’ अथवा ‘शब्द-योग’ सनातन है । ऋषियों द्वारा आविष्कृत और वेदोपदिष्ट है । पुस्तक में वेद-मंत्रें के साथ-साथ महर्षिजी ने संत कबीर, गुरु नानक आदि सन्तों के वचनों की संगति लगाकर विषय को समझाने के लिये बड़ी सुगमता कर दी है । सन्तमत और वेद-मत के बीच जो खाई थी, उसे महर्षिजी ने ‘वेद-दर्शन-योग’ लिखकर पाट दिया है।
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज बिहार प्रान्त में विराजते हैं । सैकड़ों व्यक्ति सनातनधर्मी और आर्य-समाजी इनसे नादयोग का तत्त्व सीखकर अभ्यास करते हैं । संत कबीर तथा गुरु नानकदेव की तरह वा राधा- स्वामियों की तरह इन्होंने अपना सम्प्रदाय या मत खड़ा नहीं किया है । केवल बाह्यमुखी भौतिकवादी जनता को अभ्यन्तर्मुखी करके अध्यात्म की ओर ले आना ही इनका उद्देश्य है ।
 महर्षिजी की रचित कई पुस्तकें हमें खगड़िया कॉलेज के प्रोफेसर श्रीविश्वानन्दजी ने दीं, जिनमें उपर्युक्त पुस्तक ‘वेद-दर्शन- योग’ भी है । श्रीविश्वानन्दजी जन्मना आर्यसमाजी हैं और आर्य- समाज के अच्छे कार्यकर्त्ता भी । ऐसे ही अनेक आर्यसमाजी महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के सहारे अन्तर्मुखी हो रहे हैं । वेद भगवान स्वयं स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं -
प्रजापतिश्चरतिगर्भेऽअन्तर जायमानो बहुधाविजायते ।
तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीराः तस्मिन्हतस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।
 प्रजा का स्वामी गर्भ में अन्दर ही विचर रहा है । बहुधा प्रकट भी होता है । पर उसके प्रकट होने को योगी ही देखते हैं, उसमें सब भुवन स्थित हैं ।
 इस मन्त्र में चार वाक्य हैं । प्रथम वाक्य में उस प्रभु की सर्वव्यापकता बताई । दूसरे में यह बताया कि यह बात केवल थोथा अन्धविश्वास ही नहीं है, वह गुप्त तत्त्व अनुभूति के योग्य है । तीसरे वाक्य ने अनुभव करने की योग्यता बतायी कि उसका अनुभवात्मक प्रत्यक्ष योगी ही कर सकते हैं । बिना अन्तर्दृष्टि हुए उस आनन्दात्मक तत्त्व का साक्षात् नहीं हो सकता । सगुणोपासक सन्त सूरदासजी के मत से भी वह तत्त्व ‘मन बानी को अगम अगोचर’ है । इन्द्रियातीत उस ब्रह्म को बहिर्वृत्ति मन कैसे जान सकता है ? उपनिषद् कहती है -
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्यतन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ।।
 अर्थ - जो अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय तथा रसहीन, नित्य और गन्ध-रहित है, जो अनादि, अनन्त, महत्तत्त्व से भी पर और ध्रुव (निश्चल) है, उस आत्मतत्त्व को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है । उस परम सूक्ष्म तत्त्व तक ‘सुरत’ या वृत्ति को ले जाना ही सन्तों की साधना का उद्देश्य है । सुरत भी वहाँ जाकर शून्य में समा जाती है । उसकी भी वहाँ पहुँच नहीं । केवल आत्मतत्त्व ही उस परमात्म-तत्त्व का अनुभव करता है । इस गूढ़ तत्त्व तक पहुँचने की डोरी है नाद (शब्द) या ‘ध्वनि’, वह शब्द नहीं जो वैखरी वाणी के हैं । वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती - इन तीनों वाणियों से ऊपर ‘परा’ वाणी है । जो अक्षर है उसी को कहा है - ‘पर पथा तदक्षरे मग्नि गम्यते ।’ उसी शब्द को इंजील में कहा है - ‘शुरू में कलाम था । कलाम खुदा के साथ था । कलाम खुद खुदा था ।’
 यही है नाद, जो अनाहत है अर्थात् बिना चोट के स्वयं हो रहा है । ऋग्वेद में लोपामुद्रा (आनन्द-विभोर आपे को भूली हुई आत्मा) कहते हैं ।
नदस्य या रुधतः काम आगन् इत आजातो । अमुतः कुतश्चित्
 मुझे आकर्षित करनेवाले नद (नाद) का आनन्द प्राप्त हुआ है । यह आनन्द मुझमें से ही प्रकट हो रहा है, न कहीं अन्यत्र से ।
 नद, नाद, णद अव्यक्ते धातु से बने हैं । अव्यक्त शब्द, गुप्त ध्वनि जो ब्रह्माण्ड में हो रही है, उसी को पिण्ड में पकड़कर ब्रह्माण्डव्याप्त नाद तक पहुँचना है ।
 यह नाद ही सच्चा योग है । सहज अर्थ आसान नहीं, किन्तु स्वाभाविक योग से तात्पर्य है । यह मार्ग सरल नहीं । इसलिए इस साधना में गुरु की आवश्यकता है । पर गुरु वह हो, जो लक्ष्य तक पहुँच चुका हो । मार्ग की सब कठिनाइयों से परिचित हो । इस योग में सदाचारपूर्वक जीवन और निरन्तर अभ्यास चाहिए । इसलिए सन्तमत के उपदेष्टा मांसादि तमोगुणी भोजन, नशे, भोग-विलास के विरुद्ध हैं ।
 उपनिषद् भी कहती है -
  नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
 नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
 अर्थ - जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशांत है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।।24।।
 वेद मन्त्र के चौथे टुकड़े में बताया है कि ‘सब भुवन उसी में स्थित हैं । सब सृष्टि का वही आधार है । अर्थात् वह सर्वव्यापक है । सर्वव्यापक निराकार ही हो सकता है । बिना सूक्ष्मातिसूक्ष्म हुए सबमें समा नहीं सकता और सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्व निराकार ही रहेगा । ईश्वर सब लोकों को व्यापक होकर धारण कर रहा है, जैसे हमारा जीव हमारे शरीर को । जैसे हम घटादि, पटादि पदार्थों को उठाते हैं, इस प्रकार ईश्वर सृष्टि को धारण नहीं किये हुए हैं । ऐसा हो तो ईश्वर का अस्तित्व सृष्टि से पृथक् रहेगा और साकार होगा । और साकार पदार्थ सावयव होने से अनित्य रहेगा और सर्वज्ञ नहीं होगा । अतः वेद का प्रतिपादित निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वाधार, चिदानन्दमय भगवान ही सन्तों का अभीष्ट देव है । सन्तों की विशेषता यह है कि वे स्वानुभूत बात कहते हैं और विद्वान लोग शास्त्र के आधार पर उपदेश करते हैं। शास्त्र और सन्तों का अनुभव एक है, यह प्रकट करना उसी का काम है जो ‘श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ’ दोनों प्रकार से योग्य हो । विद्वान भी हो, योगी भी । श्रीकृष्ण, स्वामी दयानन्द जैसे महापुरुष इसी कोटि में आते हैं । पहुँचे तो परिणाम में, सगुणवादी भी इसी परिणाम पर हैं ।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम तें प्रकट होहिं मैं जाना ।।
(गोस्वामी तुलसीदासजी)
 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने अपनी पुस्तक में सन्तों की अनुभूति और वेद का समन्वय करके कालान्तर से बिछुड़े सन्तमत और वैदिक धर्म को एक कर दिया है। महर्षिजी की वाणी (शब्द) का भी अध्ययन किया, सबमें अन्तरानुभूति प्रकट हो रही है । वर्तमान में हमारा देश भौतिकता की ओर बढ़ता जा रहा है । ऐसे समय में वैदिक आध्यात्मिकता गुरुडम और ढोंग से रहित अन्तर्मुखी वृत्ति बनानेवाले उपदेशों की भारी जरूरत है । महर्षि मेँहीँ परमहंसजी और उनके भक्त श्रीविश्वानन्दजी, श्रीउदितनारायण चौधरीजी, प्रोफेसर महेश्वर सिंहजी, श्रीहुलासचन्द्र रूँगटाजी आदि इसी आवश्यकता को पूर्ण कर रहे हैं । भौतिक अन्वेषण के साथ यदि आध्यात्मिकता का पुट भी रहेगा तो कल्याण होगा । चेतन बिना जड़ निर्जीव है, मुर्दा है । माया में डूबने से ब्रह्मशरणागति ही बचा सकती है ।
 दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
 मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति वे ।। (गीता)
(साप्ताहिक ‘आर्य मित्र’ से साभार उद्धृत ।)

विषय-सूची

ऋग्वेद-संहिता

001

01. मोक्ष
02. ज्योति और अन्तर्नाद
03. ब्रह्म की व्यापकता, प्रकृति और जीव
04. उत्तम रीति से ध्यानाभ्यास तथा त्रिकाल सन्ध्योपासना
05. वाणी (शब्द) द्वारा ब्रह्मपद की प्राप्ति और इसका अन्य को उपदेश देने की आज्ञा
06. परमपद तक पहुँचे हुए का अनुकरण और अनुसरण
07. गोवध निषेध
08. इन्द्रियों के ज्ञान से आत्मा परे
09. अपने अभिमुख दृष्टियोग
10. वीर्यसंचय, दमशील का महत्त्व और ऊर्ध्वरेता
11. सत्संग यज्ञ
12. निर्गुण और सगुण उपासना
13. प्रकाशमय प्रभुपद वा मूर्धा की ओर आरोहण
14. ब्रह्म और जीव में अभेद का संकेत
15. उपासित होकर ईश्वर हृदय में प्रकट होता है
16. परमात्मा पवित्र हृदय में प्रकट होता है
17. परमात्मा तक आरोहण
18. धर्म के दस लक्षण
19. सत्संग-तप से पवित्र नहीं होनेवाले को ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती है
20. न सत् था और न असत् था, सृष्टि के पूर्व में तमस् था
21. सृष्टि से पूर्व की बातें
22. सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं जानता है
23. त्रिकाल सन्ध्या
24. आपस में सब मेल से रहो और ईश्वरोपासना करो 

सामवेद संहिता

002

1. आग्नेय काण्डम् ( वेदवाणी के अतिरिक्त मनुष्य-वाणियों में ईश्वर की स्तुति)
2. समस्त उत्पन्न पदार्थों में परमात्मा का निवास
3. प्राण-अपान रूप आहुति
4. (ऐन्द्रकाण्डम्) परमात्मा अवाङ्मनसगोचर
5. ध्यान लगाने का स्थान
6. जल में जल की भाँति परमात्मा में जीवात्मा का मिलन
7. आत्मा की सत्यस्वरूप प्रियवाणी
8. (तिस्त्रो वाच) तीन वेद अथ पवमान-काण्डम्
9. ज्योति का साक्षात्कार
10. अनाहत नाद को कौन नहीं प्राप्त कर सकता
11. ब्रह्मानन्द के मधुर रस से पूर्ण अनाहत नाद
12. अनाहत नाद करनेवाली धाराएँ
13. उत्तरार्चिकः (‘सोऽहं’ या ‘ओं’ अन्त नाद:)
14. ब्रह्म का घोष मेघगर्जन के तुल्य
15. अनाहत नाद के अभ्यास से प्राणवायु को वश करना
16. सर्वदर्शी परमात्मा नाद करता हुआ देह में व्याप्त है
17. व्यापक आत्मा अनाहत रूप से नाद करता है
18. रमणीय अनाहत नाद
19. अनाहत नाद या परमेश्वर की स्तुति से मोक्ष
20. अध्यात्म-यज्ञ के समक्ष द्रव्ययज्ञ व्यर्थ
21. आत्मा से ही आत्मज्ञान और मोक्ष